पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण जब भारतीय शिक्षित लोग धर्म और ईश्वर से विमुख होने लगे, तब देशवासियों को सत्य के मार्ग पर ले जाने के लिए परमपुरुष श्री रामकृष्ण प्रकट हुए। रामकृष्ण परमहंस जी एक महान विचारक थे, रामकृष्ण परमहंस जी के अनुसार सभी धर्म एक हैं। उनका मानना था कि सभी धर्मों का आधार प्रेम, न्याय और परोपकार है। उन्होंने एकता का उपदेश दिया।
ठाकुर श्री रामकृष्ण का जन्म 20 फरवरी, 1833 ई. को हुगली जिले के कामारपुकुर नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम क्षुद्रराम चट्टोपाध्याय तथा माता का नाम चंद्रमणि देवी था। उनके पिता बहुत गरीब थे तथा श्री रामकृष्ण अपने पिता के तीसरे और सबसे छोटे पुत्र थे। उनका बचपन का नाम 'गदाधर' था।
रामकृष्ण परमहंस पर निबंध हिंदी में (Essay on Ramakrishna Paramahansa in Hindi)
रामकृष्ण परमहंस की प्रारम्भिक जीवनजब गदाधर पाँच वर्ष के थे, तब उन्हें स्कूल भेजा गया। लेकिन बालक गदाधर का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। साथ ही इस बालक को धार्मिक नाटक, कहानियाँ और संवाद सुनने का बहुत शौक था और एक बार सुनने के बाद वह कहानी नहीं भूलता था।
इसी तरह बालक गदाधर ने धार्मिक संवाद, कहानियाँ और संगीत सुनकर खूब सीखा। इस बालक की आवाज़ इतनी अच्छी थी कि जो एक बार सुनता था, तारीफ़ करता था। बालक गदाधर में भक्ति की भावना बचपन में ही देखी गई थी। जब छोटे बच्चे धूल में खेलने में व्यस्त रहते थे, उस समय बालक गदाधर धूल का देवता बनाकर भगवान को फूल चढ़ाता था और पूरी श्रद्धा से पूजा करता था।
साधु-संन्यासी को देखकर यह बालक उनकी खूब सेवा करता था। उसके घर के पास एक अतिथि गृह था, जिसमें प्रतिदिन पुराण, महाभारत, रामायण आदि का पाठ होता था। बालक गदाधर प्रतिदिन वहां पाठ सुनने जाता था और इस प्रकार बचपन में ही उसे रामायण और महाभारत की अनेक कहानियां ज्ञात हो गईं।
रामकृष्ण परमहंस का कोलकाता आगमन
क्षुद्रराम चट्टोपाध्याय की मृत्यु हो गई, तब तक वे अपना बचपन ऐसे ही आनंद से बिता रहे थे। उनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय जीविका की तलाश में गदाधर के साथ कलकत्ता आ गए।
गदाधर की आयु लगभग सत्रह-अठारह वर्ष की थी। कलकत्ता में झांपुकुर नामक स्थान पर एक विद्यालय खोलकर रामकुमार ने किसी तरह अपना व्यवसाय चलाया। दूसरी ओर गदाधर के लिए भी उन्होंने घरों में पुजारी का काम तय कर दिया।
रामकुमार को कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि द्वारा निर्मित काली मंदिर में पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया। वहाँ भी गदाधर पर 'भवतारिणी' नामक एक काली मूर्ति को सजाने का भार था। यह कार्य करते हुए गदाधर की भक्ति भावना प्रबल होती गई। अपने भाई के पास रहकर रामकृष्ण परमहंस ने काली की पूजा करनी शुरू कर दी | वे काली माँ का श्रृंगार करते, उनकी प्रतिमा के सामने घंटों बैठकर पूजा करते हुए रोया करते थे | कुछ समय बीतने के बाद अचानक से एक दिन उनके बड़े भाई रामकुमार की भी मृत्यु हो गई। अब पूजा का पूरा भार गदाधर पर आ गया।
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विवाह
रामकृष्ण का संत से रामकृष्ण परमहंस बनने की कहानी
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रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि किसी भी एक धर्म का पालन करने से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। वे कहते थे, 'जात मत, तत् पथ' अर्थात् कोई भी मत हो, ईश्वर से मिलने का एक मार्ग अवश्य है।
यह उनका उपदेश था: "कामिनी और कंचन का त्याग किए बिना ईश्वर की भक्ति संभव नहीं है। उन्होंने धर्म के बारे में कोई जटिल मतवाद का प्रचार नहीं किया। आप अपने शिष्यों को सरल भाषा में तथा कथाओं के रूप में उपदेश देते थे।
श्री रामकृष्ण के उदार धर्म से प्रभावित होकर अनेक लोग उनके शिष्य बन गए , अनेक बड़े-बड़े लोग प्रतिदिन उनसे मिलने आते थे। केशवचंद्र सेन, प्रतापचंद्र मजूमदार, डॉ. महेंद्रलाल सरकार, नरेंद्र दत्त (विवेकानंद), नाट्याचार्य गिरीशचंद्र घोष तथा महेंद्रनाथ गुप्त जैसे लोग प्रतिदिन उनके पास आते तथा उनके उपदेश सुनते थे।
रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु
16, अगस्त 1889 को ठाकुर श्री रामकृष्ण ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। वे अपनी मृत्यु के समय कैंसर से पीड़ित थे। उन्होंने जीवन में कभी साधु का वेश धारण नहीं किया, वे हमेशा सादे वस्त्रों में रहते थे। कई लोग उन्हें भगवान का अवतार मानते हैं।
आज भी भारत ही नहीं, सुदूर अमेरिका में उनके शिष्य उन्हें भगवान का अवतार मानकर उनकी पूजा करते हैं। श्री रामकृष्ण के परम शिष्य विवेकानंद द्वारा स्थापित श्री रामकृष्ण मिशन आज भी देश-विदेश में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहा है। यह मिशन धार्मिक शिक्षा देकर स्कूल, कॉलेज आदि चलाता है।
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