लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ पर निबंध हिंदी में (Essay on Lakshminath Bezbaruah in Hindi)

आज हम इस निबंध  के माध्यम से " साहित्य रथी लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ पर निबंध हिंदी में (Essay on Lakshminath Bezbaruah in Hindi)" और साथ साथ उनके जीवन और रचनाओ के बारे मे देखेंगे | 

असमिया साहित्य में " साहित्य रथी लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ का योगदान उल्लेखनीय है। साहित्य और कला की चारों दिशाओं में उनका हाथ था। वह नाटक, उपन्यास, निबंध, लघु कथाएँ, व्यंग्य और कविताएँ लिखते थे।
इसीलिए असमिया साहित्य का भंडार उनके हाथों में पूरा हुआ और इसे देखकर आलोचकों ने उन्हें असमिया साहित्य का " साहित्य रथी " कहा।

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ पर निबंध हिंदी में (Essay on Lakshminath Bezbaruah in Hindi)

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ के पिता का नाम दीनानाथ बेजबरुआ था। दीननाथ डिप्टी कलेक्टर के पद पर थे। दीन्नाथ बेजबरुआ को सरकारी काम के लिए नागांव से बारपेटा आना पड़ता था।

रेल-मोटर असुविधाजनक थी, इसीलिए नाव से आना पड़ा। नाव से आते समय कुछ समय के लिए अहंगुरी नामक स्थान पर रुके थे, और इसी नाव पर वर्ष 1868 में लक्ष्मी-पूर्णिमा के दिन कार्तिक के महीने में बेजबरुआ का जन्म हुआ था। लक्ष्मी पूर्णिमा के दिन पैदा होने के कारण इनका नाम 'लक्ष्मीनाथ' पड़ा।

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ  की शिक्षा

उन्होंने शिवसागर सरकारी स्कूल में हाई स्कूल की परीक्षा पास की। उस वक्त असमिया भाषा की शिक्षा की कोई व्यवस्था न होने के कारण बेजबरुआ की शिक्षा बंगला भाषा में आरंभ हुई। इसके बाद कोलकाता के सीटी ने कॉलेज में प्रवेश किया और वहीं से बी.ए.  की उपाधि मिली |

उसके बाद एम.ए. और कानून पढ़ना शुरू कर दिया। लेकिन इससे पहले कि वह पढ़ना-लिखना खत्म कर पाता, वह व्यवसाय में लग गए | उनका बचपन असम के बारपेटा में बीता, जो वैष्णवों के लिए एक पवित्र स्थान है। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ बंगाली लेखकों के और भी करीब हो गए जब उन्होंने 1891 में महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर की भतीजी प्रज्ञा सुंदरी से शादी की।

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ उड़ीसा के संबलपुर में इमारती लकड़ी का व्यापार करने लगे। वहीं उन्होंने उड़िया भाषा के लेखकों और साहित्य से भी परिचय किया। कुछ दिनों बाद लक्ष्मीनाथ अकेले ही लकड़ी का कारोबार करने लगे। लेकिन ज्यादा मुनाफा नहीं कमा सके।

असमिया भाषा की प्रगति मे लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ का योगदान

 ज्यादा मुनाफा नहीं कमा सकने की वजह से बेजबरुआ का मन व्यापार से भटक गया | जबरुआ असमिया भाषा की प्रगति के लिए स्कूली जीवन से ही काम करते थे। व्यापार छोडने के बाद उन्होंने असम और असमिया भाषा की प्रगति के लिए कार्य करना सुरू कर दिया | कलकत्ता में रहकर भाषा साहित्य में  प्रगति की। 

कलकत्ता में रहते हुए, उन्होंने "जोनाकी" नामक पत्रिका का प्रकाशन किया। 1888 में, वे और उनके साथी ने 'असमिया भाषा उन्नति साधनी सभा' की स्थापना की। इसके बाद "बही" और "आवाहन"  नामक साहित्यिक पत्रिका का संपादन किया। लेकिन यह "जोनाकी"  पत्रिका के माध्यम से  उन्होंने असमिया भाषा में अधिक प्रगति की |

उस समय असमिया साहित्य हर तरफ से पिछड़ा हुआ था। इसलिए उन्होंने नाटक, उपन्यास और कहानियां आदि लिखकर असम के लेखकों को जगाने की कोशिश की। काव्य संग्रह 'कदमकली' लिखी। विशेष रूप से व्यंग्य के माध्यम से पाठकों को जगाने की कोशिश की। और कुछ हद तक सफल भी हुए। उनमें देश सेवा करने का जज्बा भी था।

लेखन कार्य

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ ने " माधव "और "शंकरदेव" की जीवनियां लिखीं। "पदुम कुंवरि" नामक ऐतिहासिक उपन्यास," बेलिमार", "जयमती", "चक्रध्वज सिन्हा 'और " देशभक्तिपूर्ण" नाटक लिखे। उनका बाल साहित्य बहुत प्रसिद्ध हुआ। उनकी व्यंग्य और हास्य रचनाएं प्रसिद्ध हैं।

इसके बाद उन्होंने गंभीर ग्रंथ भी लिखे। संकलित "तत्व कथा" असमिया साहित्य में एक महान योगदान है। "श्री शंकर देव और श्री माधव देव" उनका पवित्र खजाना है। आलोचना ग्रंथों में इसका स्थान बहुत महत्वपूर्ण है।

उनका उद्देश्य देशवासियों को जगाना था। इसीलिए उन्होंने कहा – "सकलो अछिल सकलो अच्छे नुगुनो नाला गम। इसी प्रकार उन्होंने चारों दिशाओं यथा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, नैतिक और विशेषतः साहित्यिक आदि दिशाओं में उन्नति की।

असम में साहित्य में लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ का योगदान

लक्ष्मीनाथ बेजबरोई ने असमिया साहित्य के सभी हिस्सों में प्रमुख योगदान दिया।
चक्रध्वज सिंगा, जयमति, बेलिमा, लिटिकोई, नोमल और पचानी जैसे नाटक उनके द्वारा लिखे गए कुछ ऐतिहासिक और व्यंग्यात्मक रचनाए हैं।

बारबुरानी और कृपाबर-बराक के टोपोला रचना के माध्यम से उन्होंने असमिया समाज की बुराई पर प्रकाश डाला।

उनका एकमात्र उपन्यास पदुमकुवारी कविताओं का संकलन है, जबकि कोडमकली उनकी कविताओं का संग्रह है।

असम का जातीय संगीत

उन्होंने असम के जातीय संगीत के बारे में लिखा – "अमोर अपोनार देश..." इससे उनके जीवन दर्शन पर प्रकाश पड़ता। बेजबरुआ को असमिया की नई कहानी  का जनक ही माना जाता है।आज  बेजबरुआ हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन असम के लोगों ने उनको आदर्श मान कर प्रशंसनीय कार्य किया है। कई तरह के ग्रंथ लिखे गए। असमिया साहित्य सभा द्वारा "बेजबरुआ ग्रंथावली" भी प्रकाशित किया गया था।

मृत्यु

लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ वर्ष 1938 में चले गए, लेकिन अपने पीछे कई अमूल्य खजाने छोड़ गए, इसीलिए हम तभी अच्छे माने जाएंगे जब हम उन्हें मार्गदर्शक के रूप में लेंगे। 1924 में, वह असम साहित्य सभा के अध्यक्ष थे।
लोगों को उनकी रचनाओं से रस मिलता था, इसीलिए उन्हें 'रसराज' बेजबरुआ भी कहा जाता था। वह वास्तव में एक "साहित्य रथी" थे।

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