आदि शंकराचार्य पर निबंध हिन्दी मे (Essay on Shankaracharya in Hindi)
यह लेख आदि शंकराचार्य पर निबंध हिन्दी मे (Essay on Shankaracharya in Hindi) है | आदि शंकराचार्य को शंकर का अवतार भी कहा जाता हैं|हिन्दुओं में आदि शंकराचार्य पूजनीय है|भारत के सम्पूर्ण गौरवशाली इतिहास में यहाँ के प्राचीन सनातन धर्म और यहाँ की संस्कृति का बहुत अधिक योगदान रहा है।
भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म ने देश के गौरवशाली इतिहास को बहुत कुछ दिया है। प्राचीन भारतीय सनातन धर्म, जिसे हिन्दू धर्म भी कहते हैं, की स्थापना करने का श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है।
इस लेख मे हम आदि शंकराचार्य पर निबंध के साथ साथ आदि शंकराचार्य का हिन्दू धर्म मे अपने योगदान के बारे पढ़ेंग |
आदि शंकराचार्य पर निबंध हिन्दी मे (Essay on Shankaracharya in Hindi)
हमारा देश भारत अति प्राचीन काल से दार्शनिक और आध्यात्मिक
ज्ञान के लिए विख्यात है। ईश्वरीय तत्व अनुसन्धान करनेवाले दार्शनिक, साधक, योगी इत्यादी महापुरुष यहाँ जन्म ग्रहण
करके भारतभूमि को पवित्र कर गये हैं।
उनलोगों को साधना, तपस्या
तथा कर्त्तव्य निष्ठा से पैदा हुए अनेक धर्म, धर्मशास्त्र,
मठ-मन्दिर, तीर्थ, आश्रम
आदि आज तक मूर्ख जनता में ज्ञान का प्रचार कर रहे हैं।
भारत के दार्शनिक तथा धर्म प्रचारकों में शंकराचार्य का स्थान
अद्वितीय है। ताराओं के बीच पूर्णिमा के चाँद की तरह भारत के श्रेष्ठ ज्ञानी लोगों
के बीच में अपनी प्रतिभा से चमकनेवाले शंकराचार्य को हम जगत गुरू कहकर प्रणाम करते
हैं। उनके द्वारा भारत की जो सुख्याति हुई है यह चिरकाल तक रहेगी तथा उन्होंने जो
कुछ भी भारत को दिया है उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
शंकराचार्य का जन्म
जब देश में बौद्ध धर्म पतन की ओर अग्रसर हो रहा था तथा उसके
साथ-साथ ब्राह्मण धर्म में भी नाना प्रकार के कुसंस्कार घुस गये थे तथा जब भारत से
धर्म लुप्त होने होने को था तब भगवान शंकराचार्य ने जन्म ग्रहण कर हिन्दू धर्म तथा
हिन्दू जाति की रक्षा की। शंकराचार्य के जन्म तारीख के बारे में एक निश्चित तारीख
बताना कठिन है। किन्तु
उनके शिष्य माधवाचार्य ने 'शंकरदिग्विजय'
नामक ग्रन्थ में लिखा है :
जयो सती शिवगुरोनितुंग
संस्थे
सूर्ये कुंजे चरिते च
गुरौच केन्द्रे।।
अर्थात् जब सूर्य, मंगल और शनि अपने तुंग में थे, तथा बृहस्पति केन्द्र में उस समय शिवगुरू की पत्नी सती के गर्भ से शंकराचार्य का जन्म हुआ। ज्योतिषियों की गणना के अनुसार ऐसा लग्न नक्षत्र का संयोग आठवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में मिलाता है। इस तरह ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शंकराचार्य का जन्म सन् 788 में हुआ था।
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पारिवारिक पृष्ठभूमि
केरल राज्य के कालटि नामक गाँव में शंकराचार्य का जन्म हुआ था।
कुछ लोगों का कहना है कि उनका जन्म स्थान चिदाम्बर था।
उनके पिता का नाम शिवगुरू तथा माता का नाम सती था। शिवगुरू एक
धार्मिक ब्राह्मण थे। धन-सम्पत्ति की उन्हें कमी नहीं थी, लेकिन
वृद्धावस्था तक कोई सन्तान नहीं होने से वे बहुत ही दुखी रहते थे।
उनकी पत्नी सती देवी उनको शिव की उपासना करने को कहती थीं। ऐसा
कहा जाता है कि दोनों पति-पत्नी ने सिर्फ फल-मूल खाकर शिव की आराधना शुरू की। शिव
उनकी आराधना से संतुष्ट होकर उनके सामने उपस्थित हुए तथा उन्होंने कुछ वर मांगने
को कहा।
इस पर शिवगुरू ने अपनी इच्छा बतायी। तब शिव ने पूछा तुमलोगों
को मूर्ख तथा अज्ञानी बहुत आयुवाला पुत्र चाहिए या गुणवान, किन्तु
कम आयुवाला और एक पुत्र चाहिए? शिव की ऐसी बात सुनकर शिवगुरु ने एक
गुणवान पुत्र की इच्छा प्रकट की।
शिव 'एवमस्तु' कहकर
अन्तर्ध्यान हो गये। इसके बाद शंकर का जन्म हुआ जो आगे चलकर शंकराचार्य के नाम से
विख्यात हुए।
आदि शंकराचार्य के जीवनकाल
आदि शंकराचार्य ने बचपन से ही बहुत मेधावी और प्रतिभाशाली थे। वेदों, पुराणों, उपनिषदों, रामायणों, महाभारतों सहित सभी ग्रन्थों को उन्होंने बहुत कम समय में कंठस्थ कर लिया था। ये सिर्फ सात वर्ष की उम्र में ही शास्त्रों में प्रवीण हो गए थे। आदि शंकराचार्य ने आठ वर्ष की उम्र में सन्यास धारण कर लिया था।
बचपन में ही शंकराचार्य को संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने संसार को मायामय तथा अन्तिय समझकर संन्यास धारण किया। किन्तु अकर्मण्य बनकर जीवन व्यतीत करने के भी पक्ष में नहीं थे |
शंकराचार्य के जीवन के बारे में कई कहानी प्रचलित है। ज्योतिषियों की गणना के अनुसार इनकी आयु वर्ष ठहरायी गयी, बाद में इनके गुरु के आशीर्वाद से जीवनकाल 8 वर्ष से 16 वर्ष हुआ और फिर व्यासदेव के आशीर्वाद से 32 वर्ष हुआ।
राग का जीवन
शंकराचार्य अपनी माँ के बहुत बड़े भक्त थे। जब वे संसार के
माया-मोह को छोड़कर राग का जीवन व्यतीत करने के लिये तैयार हुए तो उनकी माँ को
बहुत बुरा लगा।
शंकराचार्य अच्छी तरह समझ रहे थे कि जब तक माँ का आशीर्वाद
नहीं मिलता है तब तक उन्हें अपनी किसी भी काम में सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए वे
अपने माँ को संसार की अनित्यता के बारे में समझाने लगे।
शंकराचार्य ने अपनी माँ से कहा-"माँ मुझे संसार के जाल
में पड़ने न देना, किन्तु आवश्यकता होने से मुझे स्मरण
करना, उसी समय मैं तुम्हारे सामने उपस्थित
होऊँगा।" इस तरह समझाने पर माँ ने आदेश दिया।
कहा जाता है कि इनकी माँ रोज सुबह पूर्ण नदी में स्नान करने
जाती थीं। नदी घर से दूर थी। एक दिन स्नान करने के लिए जाते समय रास्ते में उन्हें
मूर्च्छा लग गया। शंकराचार्य घटना सुनकर दौड़े, माँ
को बचाया तथा स्वयं माँ के दुख को दूर करने के लिए शिव को आराधना करने लगे।
फलस्वरूप पूर्ण नदी उनके घर के पास से बहने लगी।
इन किंवदन्तियों को छोड़ देने पर भी उनके जीवन को अच्छी तरह देखने से आश्चर्य होता है।
आदि गुरु शंकराचार्य ने केरल से पैदल यात्रा करके नर्मदा नदी के किनारे पर स्थित ओंकरनाथ गए. वहाँ वे गुरु गोबिंदपाद से योग शिक्षा और ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। यही पर वे लगभग तीन वर्षों तक अद्वैत तत्व का अभ्यास करते रहे।
अपनी अद्वैत तत्व साधना पूरी करने के बाद, वे अपने गुरु से आज्ञा लेकर काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए चले गए। काशी में ही, विजिलबिंदु के तालवन में, उन्होंने मण्डन मिश्र और उनकी पत्नी से शास्त्रार्थ करके उनको परास्त कर दिया था।
इन्होंने वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया। इन्होंने बौद्ध धर्म के प्रणेताओं से कई बार शास्त्रार्थ किया, उन्हें पराजित करके बौद्ध धर्म की मान्यताओं को झूठा साबित किया, जिसके कारण कुछ बौद्ध लोग इन्हें अपना शत्रु मानते हैं। भारत की वैदिक परंपरा कहती है कि ये भगवान शिव का अवतार हैं। उसने बौद्धों से कई बार शास्त्रार्थ करके उन्हें हराया।
आदि शंकराचार्य द्वारा हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार और चार मठों की स्थापना
वे स्वयं संन्यासी थे, फिर भी भविष्य में भी अच्छी तरह धर्म प्रचार हो सके, इसलिए उन्होंने कई मठ और मंदिर बनवाये। उनका जीवनकाल 32 वर्ष ही था।
इसी कम समय में अपनी अलौकिक शक्ति तथा प्रतिभा के द्वारा अपने शिष्यों के साथ देश की एक छोर से दूसरी छोर तक घूमते हुए भिन्न-भिन्न मतावलम्बी को पराजित करके, बौद्ध धर्म के प्रभाव को क्षीण कर शंकराचार्य ने देश में हिन्दूधर्म का प्रचार किया।
भारतीय सनातन परंपरा को पूरे देश में फैलाने के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने बदरिकाश्रम, शृंगेरी पीठ, द्वारिका पीठ और शारदा पीठ नामक चार मठों की स्थापना की थी। जो आज भी बहुत प्रसिद्ध है और वैदिक संस्कृति के अनुसार बहुत पवित्र है। इन मठों का संस्थापक शंकराचार्य है।
हिन्दू धर्म में चारों मठों का बहुत महत्व है, जिन्हें चार धाम भी कहा जाता है, और जो भी इन चारों धामों और तीर्थस्थलों की यात्रा करता है, उसे मोक्ष मिलता है।
हिंदू धर्म का आज का स्वरूप आदि गुरु शंकराचार्य जी की देन है।
आदि शंकराचार्य की प्रमुख ग्रंथ एवं रचनाएं
इसके अलावा, उन्होंने श्रीमदभगवत गीता, ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर कई दुर्लभ भाष्य लिखे। वे इतिहास में सबसे बड़े विद्धान और दार्शनिक थे, जिनके विचारों को अपनाने से जीवन बदल सकता है।
आदि शंकराचार्य जी की मृत्यु
831 ई० में पाल साम्राज्य के केदारनाथ (वर्तमान में उत्तराखंड राज्य, भारत) में आदि शंकराचार्य की मृत्यु 32 वर्ष की अल्पायु में हुई। आदि शंकराचार्य जी ने अपने जीवनकाल के इस छोटे से हिस्से में प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को जीवंत करने का जो काम किया है, वह अद्भुत और अविस्मरणीय है।
उपसंहार
हिंदू कैलेंडर के अनुसार, आदि गुरु शंकराचार्य जी की जयंती प्रत्येक वर्ष वैशाख माह की शुक्ल पंचमी के दिन देश के सभी मठों में विशेष हवन पूजन तथा शोभा यात्रा के माध्यम से मनाई जाती है, जिससे प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा को नूतन जीवन देकर इसे देश भर में फैलाने का प्रयास किया जाता है।

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