यह लेख सुमित्रानन्दन पन्त पर हिंदी में निबंध - Essay on Sumitranandan Pant in Hindi है | हिन्दी के प्रियदर्शी कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म भारतवर्ष के स्वीटजरलैंड अल्मोड़ा के कौसानी गाँव में 20 मई सन् 1900 को हुआ। सिर्फ छः घंटे पश्चात् इनकी माता की मृत्यु हो गयी। पन्तजी के पिता पं. गंगादत्त पंत जमींदार थे और कौसानी राज्य में कोषाध्यक्ष थे। उनकी माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। पंत अपने चार भाइयों में सबसे छोटे हैं।
माँ की मृत्यु के बाद सुमित्रानन्दन पन्त टूअर बन गये थे, परन्तु इनकी फूफी ने इन्हें पाला पोसा, जो उस समय इनके यहाँ ही रहा करती थी। इनकी पुफी का स्वभाव अत्यन्त सरल एवं नम्र था। पंत को स्मृतिशक्ति तीव्र है और सुमित्रानन्दन पन्त की सबसे पुरानी स्मृति उस समय की है जबकि वे करीब तीन वर्ष के थे। एक दिन वे अपने भाई के साथ रस्सी खींचा- खींची खेल रहे थे।
भाई ने रस्सी छोड़ दी, पंत. अंगीठी में जाकर गिर पड़े। फलस्वरूप सुमित्रानन्दन पन्त का कोमल शरीर झुलस गया। उन्हें अपने भाई के विवाह की भी घटना याद है जब वे अपने नौकर की पीठ पर चढ़कर बरात गये थे।
पंतजी बचपन में राक्षसों, भूतों एवं परियों की कहानी बड़े ही ध्यान से सुनते ते घर के पास प्राकृतिक सौंदर्य की कमी नहीं थी। बड़े-बड़े देवदार के पेड़, फिर उनसे पीले पीले पत्तों का नाच-नाच कर गिरना, बर्फ का जमना तथा बर्फ पर सूर्य की किरणों का चमकना इन्हें बड़ा ही अच्छा लगता था। सुमित्रानन्दन को बचपन से न खेलने-कूदने का शौक रहा, न लड़ते-झगड़ने का
सुमित्रानन्दन पंत जी की विद्यारम्भ
स्कूल चार-पाँच वर्ष की अवस्था में सुमित्रानन्दन पंत जी को विद्यारम्भ कराया गया। गाँव एक छोटे-से में प्रतिदिन नियमित रूप से स्कूल जाया करते थे। पढ़ने में मन भी लगता था। सन् 1909 में नौ वर्ष की उम्र में पंत जी ने अपर प्राइमरी पास की।
इनके पिता इन्हें अंग्रेजी स्कूल में दाखिल कराना चाहते थे, लेकिन नजदीक में कोई स्कूल नहीं था। इसलिये अंग्रेजी की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता और भाई से हुई। पंतजी के बड़े भाई हरदत्त पंत इनको बहुत मानते थे। ग्यारह वर्ष की उम्र में उन्हें अलमोड़ा के गवर्नमेंट हाई स्कूल में दाखिल कराया गया।
नवीं कक्षा तक इन्होंने वहाँ पर शिक्षा प्राप्त की, फिर काशी चले आये और वहाँ जयनारायण हाई स्कूल में दाखिल किये गये। सन् 1915 में उन्हें स्वामी सत्यदेव के प्रवचन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। वहाँ स्वामीजी के द्वारा एक हिन्दी पुस्तकालय की स्थापना हुई, जिसके फलस्वरूप पंत में हिन्दी प्रेम और देश भक्ति की भावना प्रस्फुटित हुई।
उस समय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में प्रयाग से 'सरस्वती' पत्रिका प्रकाशित होती थी, जिसमें मैथिलीशरण गुप्त जी की कविताएँ निकला करती थीं और उन कविताओं को पंत जी बड़े शौक से पढ़ा करते थे।
पंत जी ने अपने ऊपर द्विवेदी युग के श्रेष्ठ कवि मैथिलीशरण गुप्त का प्रभाव अपनी काव्य-साधना के शैशव में स्वीकार किया है और इसीलिये गुप्त जी तथा द्विवेदी जी दोनों की गीति प्रशस्तियाँ आपने लिखी हैं।
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सुमित्रानन्दन पन्त की काव्य प्रतिभा
कहा जाता है कि 15 वर्ष की उम्र में सुमित्रानन्दन पन्त ने अपने फुफेरे भाई को रोला छन्द में एक पत्र लिखा था। यहीं से उनकी काव्य प्रतिभा की किरणें फूटती हैं। सन् 1916 में पंत ने रामायण, महाभारत, गीता आदि पढ़ना आरम्भ किया।
इससे एक ओर उनका हृदय ज्ञान-वैराग्यमयी भावनाओं की ओर आकृष्ट हुआ तो दूसरी ओर साहित्य की ओर। सुमित्रानन्दन पन्त की पहली कविता 'आल्मोड़ा अखबार' में सन् 1916 में छपी। उस समय कविता का छन्द था हरिगीतिका उन्हीं दिनों 'सुधाकर' नामक पत्रिका (1916-17) श्यामाचरण पंत के सम्पादकत्व में निकली, जिसमें पंत जी की कवितायें प्रकाशित होने लगीं।
उनका उस्ताह बढ़ा। इन्होंने अपनी काव्यकला संवारने के लिये पूर्ववर्ती साहित्यकारों की कीर्तियों के साथ-साथ 'छन्द-प्रभाकर' और 'काव्य प्रभाकर' का भी अध्ययन किया। पंत के प्रिय कवियों में मतिराम, पद्माकर और बिहारी थे। उनके अत्यन्त अप्रिय कवि केशवदास थे। सन् 1916 से पन्त लगातार लिखते रहे।
कभी-कभी तो एक ही दिन में दो-तीन कविताएँ लिख देते थे। इसी समय इन्होंने 'हार' नामक एक उपन्यास लिखा जो आज तक प्रकाशित नहीं हो सका। जुलाई सन् 1917 ई. में आपने मैट्रिक की परीक्षा पास की। जुलाई 1920 में म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में भरती हुए। उसी समय आपने 'स्वप्न' कविता लिखी।
उन दिनों गाँधी जी का असहयोग आन्दोलन जोर पकड़ रहा था जिसमे प्रभावित होकर पंत ने भी कॉलेज का परित्याग किया। आपने 1922 में 'उच्छवास' नामक कविता लिखी जो अजमेर से प्रकाशित हुई। सन् 1924 में आपका झुकाव दर्शन की ओर था जिसके चिन्ह 'परिवर्तन' शीर्षक कविता में देखने को मिलते हैं।
1926 से 1930 तक कभी भाई के मरने से तो कभी पिता की मृत्यु से, कभी आर्थिक परेशानी से तो कभी दिमागी उलझनों से दुखी रहे। बीच में बीमार भी पड़ गये। 1930 में आपने कुछ कहानियाँ लिखीं जो 'मधुबन' नाम से प्रकाशित हुआ।
रचनाएँ
इसके तीन-चार साल तक सुमित्रानन्दन पन्त मार्क्सवाद तथा रूसी लेखकों के ग्रन्थों को पढ़ते रहे। रहस्य से पूरी तरह पिण्ड तो नहीं छूटा, लेकिन मार्क्सवाद ने जरूर प्रभावित किया। इसी से प्रभावित होकर 'गुंजन' एवं 'ज्योत्सना' की रचना हुई। सन् 1938 में आपने 'रुपाय' निकाला जो पीछे जाकर बन्द हो गया।
अब आपके जीवन का दृष्टिकोण बदल चुका था। सन् 1934-35 की आपकी कविताएँ 'युगान्त' के नाम से प्रकाशित हुई। इसी बीच आपने भारत के बड़े-बड़े शहरों का भ्रमण किया।
'कल्पना' चित्र के निर्माण में आप पांडीचेरी गये। सन् 1945-46 में 'स्वर्ण किरण' तथा 'श्वर्णधूलि' कविताएँ लिखीं। इसके बाद की आपकी काव्य पुस्तक है 'उत्तरा'। इसके बाद आपका गीति नाट्य 'शिल्पी' के नाम से प्रकाशित हुआ तथा आधुनिक कविताओं का संकलन 'रश्मि वध' नाम से निकला है।
छायावादी कवियों में इनका महान स्थान है। इनकी रचना 'चिदम्बरा' के लिए इन्हें 1968 का 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' दिया गया। यह ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के पहले रचनाकार थे।
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